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एक दिन मैं जागा
- मेरे भीतर दिन जागा
- जागने पर सूरज ने मेरा माथा चूमा
- मेरे भीतर एक दिन प्यास जागी
- आकाश दुखी हुआ मेघ अश्रु-धार रोये
- मेरे भीतर एक नदी जागी नदी के साथ नाद जागा
- मैं इतना बहा अनहद हो गया
- मेरे भीतर हरियाली जागी
- मैं वनस्पतियों में हंसा मेरे भीतर कवि जागा
- मेरे भीतर जाग उठे वेदना के महाकाव्य
- मैं जगा और नंगे पांव चला
- उसके आगे आगे मेरे भीतर पृथ्वी जाग उठी
- और उसके बाद वह सब जागा
- जो चाहिए था जीवन को मैं सो गया
- उठा तो मेरी काया
- और थी मेरा नाम और था
- मैं आग की गोद में सोया था जागा
- तो पृथ्वी की गोद में था मैं जागा
- स्मृति सोई रही
- स्मृति में बस्ते थे कई जीवन
- मुझे पृथ्वी देकर मेरी स्मृति छीन ली गई
- एक वियोगन नंगे पांव मेरेे पीछे कूद पड़ी धरती
- पर मुझे मेरी स्मृति सौंपने आई
- उसे याद है सब मेरे भीतर सब सोया है
- उसने कई रागनियां गाईं पर
- उसके सुरों ने छुआ तक नहीं
- मेरे सोये हुए अंश को पता नहीं
- मेरे भीतर क्या क्या सो गया है
- बहुत जगाने पर भी स्मृति लौटती नहीं
- वह कहती है तुम्हारे हंसने भर से
- जाग उठते थे सहस्र कमल नाग नाचने लगते थे
- तेरी बांसुरी की धुन से तुम्हारे नेत्र
- जिधर देख देते वसंत आ जाता
- उस ओर तुम प्रेम में बास करते थे
- करूणा तुम्हारी प्रिय थी
- तुम फूलों के बाण रखते थे
- इतने कोमल थे तुम
- तितलियों के बैठने पर भी पड़ जाते थे निशान
- तुम पर कुछ पाखंडी हुए
- जिन्हें भस्म बहुत प्रिय थी
- उनके पास न प्रेम था न करूणा
- उन्होंने तुमे आग के हवाले कर दिया
- और तुम्हारी भस्म से किया
- स्वयं को और बलशाली
- मैंने बहुत पुकारा तुम्हें
- पुकारते- पुकारते सदियाँ बीत गईं
- कई घाटियों को लांघ आई
- तुम हो कि बोलते ही नहीं
- कब बोलोगे कामदेव? ………..
- नरेश कुमार खजूरिया डींगा अम्ब,कटली जम्मू कश्मीर मोब.07889736743