सुषमा आज फूली नहीं समा रही थी, और होती भी क्यू ना ..उसकी बेटी के लिए वो मोती सा दामाद जो खोज लायी थी ।दोनो ने एक दूसरे को पसंद कर लिया था, दोनो की जोड़ी यु जँच रही थी जैसे चाँद और सूरज की जोड़ी हो । जहाँ बेटी सुहानी पे लक्ष्मी सा रूप आ रहा था वही दामाद भी नारायण से कम नहीं लग रहा था । अच्छा घर ,वैभवशाली सास ससुर ..और क्या चाहिए एक बेटी की माँ को ।बस बेटी ख़ुश रहे और राज करे ,अपने ससुराल में ।

         सुषमा एक मध्यमवर्गीय घर की ग्रहणी थी ।पति अभिमन्यु एक मल्टीनैशनल कम्पनी में उच्च पद पे आसीन था । भरा पूरा संयुक्त परिवार था । सुषमा की चाहतें हमेशा घर परिवार की धुरी पर ही घूमती रही ।उम्र का एक पड़ाव आराम से कट गया था ।बस अब बेटी की शादी के बाद दूसरे पड़ाव की तैयारी थी ।

शादी की डेट एक महीने बाद की निकल रही थी । जिसे बहुत कह सुन के सुषमा ने आगे बढ़वाया।वो शादी में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती थी ।आख़िर बहुत कहने के बाद दिवाली के बाद का साया सुझ गया ।बहुत काम थे ,करने को और सुषमा के तो पैर ही ज़मीन पे नहीं पड़ रहे थे ।

         पति अभिमन्यु के साथ उसने ज़िंदगी की एक बड़ी पारी बड़ी चैन से गुज़ारी थी ।कमी जैसी कोई कमी कहने को भी नहीं थी ।बाक़ी परिवार के लोग वैसे ही थे ,जैसे आमतौर पर एक भारतीय संयुक्त परिवार के होते हैं ।पति हमेशा यही कहता रहा जहाँ चार बरतन होगे तो खटकेंगे ही ना,इन सब बातों को लेकर मनमुटाव सही नहीं ।क्योंकि सुषमा कभी बहुत महत्वाकांक्षी नहीं रही ,तो घर परिवार में वैसे ही ढल गई जैसा सबने चाहा ।बस अब उसकी चाहत यही थी कि उसकी बेटी को भी ससुराल में सब खुले मन से स्वीकार करें और वो अपनी ससुराल में रम जाए ।सुहानी की सास तो सुहानी पर जान लुटाती  थी और दामाद युवान तो बस सुहानी से मिलने के बहाने ढूंढता रहता।यह सब देख सुषमा एक चैन की साँस लेती,की सब कुछ अच्छा है ।

         युवान भी अब सबसे घुलने मिलने लगा था ।रोज शाम किसी न किसी बहाने ऑफ़िस से घर आ जाता,उसकी निगाहें बस सुहानी को देखने को बेचैन रहती ।कभी किसी बहाने से उसे छूने की कोशिश करता तो कभी बाहर चलने की ज़िद ।सुहानी पर तो अलग ही रूप आ रहा था दिन भर ख़ुशी से इधर उधर उछलती रहती ।बात-बात पे लाल हो जाती ।बच्चों का यू  भावनाओं में बह प्यार करना सुषमा को अलग ही सुकून दे रहा था।

        उस दिन जब युवान घर आया तो बारिश हो रही होती मौसम में बारिश का खुमार और हवा की ठंडक सुकून ने रही थी ।सुषमा ने सबके लिए चाय और पकौड़ों बनाए थे ।इतने में युवान को धसका लगा तो वो थोड़ा बहार को चला गया ।पीछे पीछे सुहानी भी गई की कहीं युवान को ज़्यादा परेशानी न हो जाए ।जब थोड़ी देर हो गई तो सुषमा ने सोचा देख लेती हूँ ।वो जैसे ही बाहर गार्डन एरिया में गई ।युवान  के कोने में खड़ा हो सुहानी पर झुका हुआ था उसका एक हाथ सुहानी की कमर पर था और दूसरा कंधे पर ।सुहानी लगभग युवान की बाहों में पिघल रही थी ।युवान के होंठों का एक मीठा बोसा सुहानी के माथे पर था ।उन्हें देखते ही सुषमा की आँख की झुक गई ।अंदर एक तूफ़ान सा उठ खड़ा हुआ ।सुषमा धीरे से पीछे हटकर अन्दर चली गयी ।पर धीरे धीरे कुछ था जो बदल रहा था सुहानी को देखकर युवान  की आँखों को बदलना ।चोर नज़रों से सुहानी को देखना ,जिसे देख सुषमा फूली नहीं समाती थी अब उसे चुभने सा लगा था ।कैसी भावना थी ये ।ये वो ख़ुद समझ नहीं पा रही थी ईर्ष्या और जलन वो भी अपनी बेटी से …ये कैसी भावना …क्या माँ भी अपनी बेटी की बसती गृहस्थी देख ईर्ष्या कर सकती हैं ?ये ख़ुद सुषमा समझ नहीं पा रही थी। 

            धीरे धीरे सुषमा अतीत में जा खड़ी हुई ,जहाँ वो ख़ुद यौवन की दहलीज़ पर खड़ी एक युवती थी जिसे विवाहित जीवन के बारे में बस इतना पता था कि सजने को मिलेगा और पति के साथ रात अंधेरे में भी सिनेमा जाया जा सकता है ।और फिर पता नहीं कितनी ही सपनों को लाल चुनर के छोर से बांध वो ससुराल की दहलीज़ पर आ खड़ी हुई थी ।दमकता रूप ,यौवन ,गुण ,बुद्धि सब तो था ,बस ज़रूरत थी एक झोंके  की जो उसके सपनों की पतंग को  वास्तविकता के धरातल पर उतार सके ।और उसे दोनों हाथों में समेट अपने दिल में सहेज ले ।पर पति के शुष्क व्यवहार और ससुराल की रोज़ की कलह ने सपनों की पतंग को उड़ने से पहले ही काट दिया।ससुराल आते ही सुषमा गृहस्थी की पाटों में ऐसा फँसी की जीने का मौक़ा मिल ही नहीं पाया ।और आज वही सपने सुहानी को जीते  देख ,सपनों की पतंग फिर फड़फड़ाने लगी थी ।कई बार हमारे कुछ अधूरे ख़्वाब और ख्वाहिशें जिन्हें हम यत्न से दबा ये सोच आगे बढ़ जाते हैं कि सब कुछ सही है ।वो सही नहीं होता ,वो घाव समय के साथ नासूर बन जाते हैं और रिसते रहते हैं ।अगर इन सब बातों का ज़िक्र तक किसी से करती तो लोग ज़रूर उसे पागल क़रार दे बैठते।घर में किसी से भी मन हल्का करना बेकार था ।पच्चीस सालों की गृहस्थी ने उसे यह समझा दिया था ।समझ नहीं आ रहा था की कहाँ जाए ,कैसे इस चक्रव्यूह से बाहर निकले ।मंदिर में दुर्गा माँ के सामने दिया लगातार बैठ गई ।जब भी कोई समस्या आती सुषमा को बस माँ की याद आ जाती ।माँ के सामने सुषमा आंख बंद कर बस रोती जा रही थी ।शायद बेटी के लिए दामाद का जो प्यार उसे ईर्ष्या में जला रहा था ।वही ईर्ष्या उसे आत्म ग्लानी जैसी प्रतीत हो रही थी ।सुहानी ने जब माँ को यू बिलखते देखा तो पास आकर बैठ गई ।सुहानी को लगा माँ उसकी विदाई को लेकर चिंतित हैं ।

            सुहानी को देख सुषमा बच्चों सी बिलख गई। सुहानी ने उसका सर अपनी गोद में रख सहलाना शुरू किया ।सुषमा को उस समय वो सुकून मिला जो कभी उसे अपनी माँ की गोद में मिला करता था ।सुषमा के अंदर एक तूफ़ान चल रहा था ।वो कैसे कहें सुहानी को की वो क्या महसूस कर रही हैं ।जो पल वो जीना चाहती थी ,कभी अभिमन्यु के साथ वो मान… मनुहार ..ज़िद ,जो वो करना चाहती थी अभिमन्यु के साथ ,वो आज एक टीस सी बन उभर रही है।सुहानी की काफ़ी ज़िद करने पर सुषमा ने अपना मन रखना शुरू किया ।सुहानी माँ के इस रूप से वाक़िफ़ नहीं थी ।पर पापा की रूखे व्यवहार को जानती थी ।उसने माँ की चेहरों को हाथ में लिया और घीरे  से माथे को चूमा ।

“ माँ, जब बेटी बड़ी हो जाती है ,तो वो माँ की सहेली बन जाती है ना “सुहानी ने धीरे से कहा उस दिन सुषमा को लगा सच सुहानी बड़ी हो गई है ।फिर सुहानी चुहल  कर बोली 

“पता माँ सच युवान कह रहा था तुम कब अपनी माँ सी दिखोगी ।सोच रहा हूँ तुम्हारे साथ तुम्हारी माँ को भी अपने साथ ले जाऊँ।”

सुषमा शर्म से लाल हो गई उसने सुहानी के सर पर प्यार से हाथ मारा 

“धत् ….पागल लड़की “

         सुषमा के आंसुओं के साथ अब सुहानी का प्यार शामिल था ।उसे पता था माँ के वो अनमोल पल कभी वापस नहीं ला सकती ..हाँ पर ..उनका दर्द कुछ हल्का ज़रूर कर सकती है दोनों काफ़ी देर यूँ ही मौन आँसु बहाते रहे ।सच….कह देने से दर्द ख़त्म तो नहीं होते ,गुज़रा वक़्त वापस नहीं आता …बस कुछ सुकून आ जाता है ।सुषमा जिस आत्म ग्लानी में जल रही थी ।वो अब ख़त्म हो गई थी ।तभी सुहानी चहक की बोली चलो माँ खाना खिलाओ ना मुझे अपने हाथ से ,बहुत भूख लगी है ।और फिर दोनों की हँसी हवा में घुल मीठी हो गई।

#ऋचा

#❤️se

       

डॉ. ऋचा गुप्ता सहायक प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय. अध्ययन, अध्याप, लेखन,

में रुचि।शिक्षा अर्थशास्त्र में एम.ए., एम.फ़िल पी .एच .डी । पिछले कई सालों से दिल्ली  विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रही है ।कहानियों के माध्यम से अपनी साहित्य में रुचि को आप सभीके सामने रखने का एक छोटा सा प्रयास है।  

मेरी रचनायें पहले भी क़ुछ स्थानो पर प्रकाशित हो चुकी है ।उनकी सूची  मैं यहाँ संलग्न कर रही हूँ ।

  1. संस्मरण ,रचना उत्सव, अक्तूबर 22
  2. अनोखी क्रांतिकारी बीबी दादी ,रचना उत्सव,अगस्त 22

पता – A-65 चंदर नगर 

ग़ाज़ियाबाद 201011