सपन सुहावन तेरे-मेरे
लगते अच्छे सांझ-सवेरे
दूर गगन बिचे चंदा खेले
बिन बादल के रूप चनेरे
आंख छुपाए दर्द के आंसू अब मुसकाना सीख लिया
होंठ लुटाना सब-रस प्याला भल हमनें इसे सीख लिया
मक्खन सा वदन कुम्लाए ना हर-पल लागे खिला-खिला
ऐसे में दधि का मथना मैंने भी मुक़म्मल सीख लिया
तिरी कट रही भल हमने काटी है
ये मस्ती तो कुछ न कुछ बताती है
सच है जो किसी की उड़ाई खिल्ली
उसको इक दिन बेबसी रुलाती है
जाने कहाॅं है वो ? है दिल में जो समाए
किसकी बली चढ़ेगी है कौन ? जो बुझाए
खतरा नहीं टला नजरों के तीराॅं चलना
भल है ऐसा लागे खुलासा हुआ जो जाए
हृदय-गेह में भरा नेह है
दर्पण देखो चुवे मेह है
है प्रेमारस से देह भरी
पर नयनों में छुपा लेह है
लेह-ग्रहण
कब तक प्रतीक्षा करूॅं ? आके बता जा तू
कब तक है ज़हर पियूॅं ? आके बता जा तू
अब तक यही लम्हा है सदियों सा गुजरे
कब तक अब हिज़्र सहूॅं ? आके बता जा तू
अब वक्त से हैं शिकायत कैसी ?
जो गया उसकी बग़ावत कैसी ?
नज़रें उन्हीं पे जिन्हें आना है
चुप जो उसी की वकालत कैसी ?
पंछी सा उड़ पाता आता पास तिरे उन्मुक्त गगन में
भॅंवरा होता जो उड़ता रहता इतराता बिंदास चमन में
आशाओं के दीप जलाकर उजियारा बनता जाता यूॅं
शीतल जल बरसाता जाता बनकर बादल मीत तपन में
अब क़रीबाॅं आना उसका इत्तिफ़ाक़न है क्या ?
मिलते ही नज़रें झुकाना इत्तिफ़ाक़न है क्या ?
माना उसके पास है देने को ही बचा क्या ?
फिर भी यूॅं सब कुछ लुटाना इत्तिफ़ाक़न है क्या ?
इत्तिफ़ाक़न – अकस्मात /अचानक /सहसा
दिवास्वप्न के द्रष्टा अक़्सर भौंचक्के घूमा करते हैं
वो कुंठित रहते दोष ढूंढते घुटते-घुटते मरते हैं
हैं कुछ जागृत करते सपने अपने संकल्पों के दम पर
तो कई विकल्पों के ही सॅंग-सॅंग राह निहारा करते हैं
हमसफ़र हूॅं ज़िंदगी का यूॅं हमें ना भूल जाना
रास्ते पर भरी भटकन अरे मुझे ना छोड़ जाना
जानते हो सब मग़र पर जानकर अंज़ान बनते
जानते हो ये भी क्या ? आये ना मुझको मनाना
कोई कहे बेहिसाब कोई लाज़वाब कहे
जो भाव दिल में आए है वो वैसा ही कहे
जानने वाले सामने कुछ पीछे कुछ कहते
कीरत सॅंवारना ये दुनियाॅं चहे कुछ भी कहे
क्यूॅं ? आदमी को आदमी खलने लगा है
यूं ही तो बात-बे-बात लड़ने लगा है
जानता बिन बादल बिजली चमके कब है ?
न जाने क्यूॅं ? बेपरवाह दिखने लगा है
ज्ञानेन्द्र पाण्डेय "अवधी-मधुरस" अमेठी
8707689016
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