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युगों युगों से पूजे नारी, लिया उसे है देवी मान।
कभी देखते दुर्गा उसमें, कभी करे लक्ष्मी का ध्यान।
कभी उसी नारी को तुम क्यों, लेते हो फिर अबला जान।
देवी जिसको मान लिया था, करके दीप आरती गान।
चाह न उसकी देवी बनना, मान रखो, मानो बस नार।
सम्मान रहे बस जीवन में, इतना तो कर लो स्वीकार।
कोमल है कमजोर नहीं वो, बात समझ लो इतनी जान।
बन सकती वह काली, दुर्गा, शक्ति यदि ले वह पहचान।
वो बन सकती झांसी रानी, उसकी शक्ति न ललकार।
एक हाथ में शिशु को धारे, दूजा रख सकती तलवार।
इतिहास कहे उसकी गाथा, कर सकती वह विष का पान।
जौहर भी तो रचा उसी ने, बात उठी कैसे हो मान।
भक्ति रखे वह शबरी जैसी, निश्चय सावित्री सा जान,
द्वार पहुँच सकती वह यम के, सत्यवान के लाने प्राण।
साध्वी है वो अनुसूया सी, झूले ब्रह्मा विष्णु महेश।
ज्ञान अपाला, गार्गी जैसा, तर्क नहीं बदले हैं वेश।
पुत्री है वो, कभी सहचरी, कभी रूप माता का धार।
कर तराश अनगढ़ पत्थर को, दे सकती मूरत आकार।
शशि लाहोटी कोलकाता