सूरज जैसे खुशी ढले तो, फिर सुख नया सवेरा है!
सुख के शहर बसाने वालों,ग़म भी करें बसेरा है!
अपने घर की तरह गैर के घर का भी सुख दुख समझें!
सब मजहब हित करें जहां का,क्या मेरा क्या तेरा है!
दुख के आशू बाहर होते,आंत भूख से तड़प भरें!
इसकी पीड़ा विकट बहुत पर,ग़ज़ब का इसका खेला है!
हंसने वाले नव जवान को चिन्ता ऐसे घेर खड़ी!
रोजगार बिनु जगत पराया,बंदा खड़ा अकेला है!
मंहगाई का दौर रौंदता गिन कर बनती है रोटी!
जगह जगह शोषण की तख्ती धनवानों का डेरा है!
राजनीति ने मजदूरों के लिये किवाड़ें बंद किये!
इनके लिये कौन लडता है,चंदा किये अंधेरा हैं!
संसद तक में इनके हित की चर्चा कभी नहीं होती!
पक्ष -विपक्ष सरीखे दोनों मति माया ने फेरा है!
न्याय कहां इनको मिल सकता,इनके पास सबूत नहीं!
कर्म आज कौड़ी में बिकता पसरा जुल्म अंधेरा है!! विह्वल!!
सुरेन्द्र कुमार ” विह्वल”