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मन के कागज पर: ज्ञानेन्द्र पाण्डेय “अवधी-मधुरस”

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(मन के कागज पर)

फुर्सत के इन कुछ पल-छिन पर
स्वप्न सुनहरे खुले अंबर पर
चुन ली हैं मन की आशाएं
चित्र उकेरे मन कागज पर

कभी गरजतीं कभी बरसतीं
रह-रह कर फिर कभी तरसतीं
अभिलाषाएं मन-कागज पर
कभी मचलतीं कभी बिखरतीं

मन के कागज पर हैं राहें
रहबर -रहजन मिलकर डाहें
कौन है अपना ? सभी पराये
दिखतीं हैं बस केवल राहें

मन पथराये तन पथराये
मन के कागज पर इतराये
एक भरोसा फिर भी रहता
शायद हमराही मिल जाये

मन के कागज पर भूमंडल
कहीं है तितली कहीं है जल
सतरंगी रंगों से झिलमिल
कानों में लहराए कुंडल

गुम हुए पन्ने ख्वाब अधूरे
मोह पास में बॅंधे कॅंगूरे
लिपटी प्रेम बेल जर्जर ही
मन के कागज पर संतूरे

नैतिकता बलहीन हो गई
भौतिकता रंगीन हो गई
मन के कागज पर क्या सोचें ?
सद् इच्छा संगीन हो गई

धनबल छलबल और बाहुबल
चारों ओर मचाये हलचल
मंकी कागज पर भय चिन्हित
जाने सजल नयन हुए विह्लल

मन के कागज पर कुछ लिख लें
आओ जीवन के रंग भर लें
महकेगी बगिया जीवन की
सिंदूरी कूंची भी कर लें

मन के कागज अभी नमी है
दिनकर की बस एक कमी है
अभी प्रतीक्षा उस ऊष्मा की
पिघलेगी जो बर्फ जमी है

(अनुनय-विनय)

पास आओ दूर यूॅं न जाया करो
राह चलते को यूॅं न बुलाया करो
जिस्म दो इक जाॅं हम हैं प्रिये
बात- बे- बात यूॅं न सताया करो

मन मचलता बहकता कहाॅं मानता ?
यदि बहक जाये है फिर न कुछ जानता ?
जब बढ़े हैं कदम पीछे लौटे कहाॅं ?
वक्त भरे तीर-तरकस कहाॅं तानता ?

मेल कर बैठे हैं दांव मत खेलिए
बेवजह की अदाएं बस ना मेलिए
जिंदगी का यूॅं ही भार लादे हुए
भारी मन से डगर पे ना डोलिए

बीतता वक्त तन्हा किसका है यूॅं ?
उम्र के बिना जीवन घटता है यूॅं
मुन्तिज़िर चांदनी इस कदर चंद्र की
फिर कहो दिल किसी का मचले न यूॅं ?

कौन जाने ? मिलन फिर यूॅं हो न हो
हॅंस गा लो मिलन फिर यूॅं हो न हो
जोड़़ना फिर घटाना रोज चलता रहे
आओ जुड़ें मिलन फिर यूॅं हो न हो

बढ़ते हुए की बुझारत किया करती है दुनियाॅं
हॅंसते हुए की हॅंसारत किया करती है दुनियाॅं
टकटकी बाॅंधकर ढूॅंढोगे जब किसी हसरत को
बुझते हुए की तिज़ारत किया करती है दुनियाॅं

इश्क़ की दरिया की गहराई कौन नापेगा ?
भरा हो पेट जब तो मधुकरी कौन मांगेगा ?
हुश्न -ए-शबाब में सराबोर हो जो इस क़दर
सजा-ए-मौत भी हो तो भला कौन भागेगा ?

जवानी ढ़ल के रह जाये मोहब्बत हो नहीं सकती
बुढ़ापे में जवानी ढूंढोगे जवानी मिल नहीं सकती
समय माकूल देख कर यूॅं ही रवानी में उतर जाओ
फिर पतझाड़ आने पर खुमानी खिल नहीं सकती

बुरे दिन में याद आऊॅंगा ही अच्छे में भी याद कर लेना
नजर बदलेगी मुमकिन है फिर यूॅं इनायत किये रहना
भुलाना भूल जाना यही तो फितरत है इन आंखों की
मलामत हो चाहे मुलामत कुफ्र न हो याद कर लेना

दरकार इसी बात की कोई तो कबूल करता ?
हैं उजड़ी हुई फिजाएं कोई तो रंग भरता ?
कुॅंहासा छॅंटेगा मुमकिन है निकलेगी धूप भी
कोई तो आके पहले चादर से गुलाॅं ढ़ॅंपता

अब है किसी को आज़माने की ज़रूरत ही क्या ?
अब है किसी से कुछ भी पाने की ज़रूरत ही क्या ?
पता है सबको सबिहा कौन ? किसे ? जाना जाए
भल ऐसी फितूरत जाननेॅ की ज़रूरत ही क्या ?
सबिहा- अति सुन्दर

          ज्ञानेन्द्र पाण्डेय "अवधी-मधुरस" अमेठी
                      8707689016
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